अपरा एकादशी व्रत कथा: अपरा एकादशी— वह दिव्य तिथि है जब श्रद्धा और उपवास से व्यक्ति अपने जीवन के सबसे घोर पापों से भी मुक्त हो सकता है। यह व्रत केवल नियमों का पालन नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की ओर एक दिव्य यात्रा है। जो भक्त सच्चे मन से इस दिन भगवान विष्णु का स्मरण करते हैं, उन्हें न केवल पुण्य की प्राप्ति होती है, बल्कि उनके समस्त पाप भी अग्नि में भस्म हो जाते हैं।”

अपरा एकादशी व्रत कथा — एक दिव्य उपवास की महिमा
राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण भगवान से विनम्रतापूर्वक पूछा—“हे जनार्दन! कृपया बताइए, ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है और उसका माहात्म्य क्या है?”
भगवान श्रीकृष्ण बोले—“हे राजन्! यह प्रश्न तुमने समस्त लोकों के कल्याण के लिए किया है। इस एकादशी का नाम ‘अपरा एकादशी’ है। यह व्रत अत्यंत पुण्यदायिनी और पापकर्मों का सर्वनाश करने वाली मानी गई है। जो मनुष्य घोर पापों में लिप्त हैं—जैसे ब्रह्महत्या, गोत्र की हत्या, गर्भपात, परनिंदा, परस्त्रीगमन, झूठी गवाही, माप-तोल में बेईमानी, झूठा ज्योतिष या आयुर्वेदाचार्य बनने का पाखंड—वे भी इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करने पर पापमुक्त हो जाते हैं।
क्षत्रिय यदि धर्म का त्याग कर युद्ध से पलायन करे या कोई शिष्य अपने गुरु की निंदा करे, वे भी महापातकों के भागी होते हैं। लेकिन अपरा एकादशी के प्रभाव से ऐसे लोग भी उद्धार को प्राप्त होते हैं।
जैसे माघ मास में प्रयाग स्नान, काशी में शिवरात्रि का व्रत, गया में पिंडदान, गोदावरी स्नान, बदरिकाश्रम की यात्रा और केदारनाथ के दर्शन, सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में दान—इन सभी महान पुण्यों के बराबर फल अपरा एकादशी का व्रत करने से मिलता है। इस दिन उपवास कर भगवान वामन का पूजन करने वाला भक्त श्रीविष्णु के लोक में स्थान प्राप्त करता है।
यह कथा जो भी पढ़ता या सुनता है, वह सहस्त्र गोदान के पुण्य का अधिकारी होता है।
जब युधिष्ठिर ने यह कथा सुनी तो उन्होंने पूछा, “अब मुझे यह बताइए, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या माहात्म्य है?”
इस पर श्रीकृष्ण बोले, “राजन्! इसका वर्णन सत्यवतीनंदन महर्षि वेदव्यास करेंगे, क्योंकि वे समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं।”
फिर व्यासजी ने कहा कि दोनों पक्षों की एकादशी को अन्न का त्याग करना चाहिए और द्वादशी को स्नान, पूजन और ब्राह्मण भोजन के बाद स्वयं भोजन करें। एकादशी का पालन मृत्यु या जन्म शोक के दौरान भी अवश्य करना चाहिए।
भीमसेन ने यह सुनकर कहा, “पितामह! मेरे पेट में वृक नाम की अग्नि प्रज्वलित रहती है। मैं उपवास नहीं कर सकता। एक बार खा लेने पर भी मेरा व्रत नहीं हो सकता, फिर उपवास कैसे करूंगा?”
इस पर व्यासजी बोले, “हे भीम! यदि तुम केवल एक व्रत करना चाहते हो, तो ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी का निर्जल व्रत करो। इसमें सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक न तो अन्न, न जल ग्रहण किया जाता है—केवल आचमन की अनुमति है।”
इस व्रत के प्रभाव से संपूर्ण वर्ष की एकादशियों का पुण्य प्राप्त होता है। मृत्यु के समय यमदूत नहीं आते, बल्कि विष्णुदूत भक्त को श्रीहरि के धाम ले जाते हैं।
जो स्त्री या पुरुष इस दिन अन्न त्यागकर व्रत करता है, वह मेरु पर्वत जितने पापों से भी मुक्त हो जाता है। एक पहर में जो पुण्य कोटि-कोटि स्वर्ण मुद्रा दान करने से मिलता है, वह इस व्रत से सहज ही प्राप्त होता है।
निर्जला एकादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन, दान, जप और रात्रि जागरण करने से मनुष्य स्वर्ग में स्थान पाता है और उसकी सौ पीढ़ियाँ भी उद्धार को प्राप्त करती हैं।
इस दिन जल, गौ, वस्त्र, आसन, कमंडलु, छाता आदि का दान विशेष फलदायी होता है। जो व्यक्ति उत्तम ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह स्वर्ण विमान में स्वर्ग को जाता है। इस व्रत की कथा सुनना और सुनाना भी उतना ही पुण्यदायक है जितना सूर्यग्रहण में श्राद्ध करना।
एक संकल्प लिया जाना चाहिए—“मैं एकादशी के दिन भगवान केशव की प्रसन्नता के लिए आचमन के अतिरिक्त जल का भी त्याग करूंगा।”
अंततः द्वादशी को विधिपूर्वक पूजन और जलदान कर यह व्रत सम्पन्न किया जाता है। भीमसेन ने भी यही व्रत आरंभ किया, तभी से यह ‘पाण्डव-द्वादशी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।